हमारे रामजी अनेकों (कोटि) हिमालय के समान अचल हैं । और एक दो नहीं सौ कोटि समुंद्र के समान गंभीर हैं । रामजी धैर्य के समुंद्र हैं ।
हिमगिर कोटि अचल रघुवीरा । सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ।।
इसलिए हमारे रामजी को कोई
जल्दी नहीं रहती । रामजी कोई काम जल्दीबाजी में नहीं करते । इसलिए ही लोक
में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि ‘रामजी के घर देर है अंधेर नहीं है’ ।
सीताजी के स्वयंवर में
अनेकों राजा आए हुए थे । यहाँ तक कि रावण और वाणासुर भी आए थे और हार मानकर चले गए
थे ।
समय बीतता जा रहा था । कोई
राजा चाप को हिला भी नहीं पा रहा था । सीताजी की चिंता बढ़ती जा रही थी । रामजी
गुरू जी के पास बैठे सब देख रहे थे । जान रहे थे । लेकिन कुछ कर नहीं रहे थे । बड़े
शांति से बैठे थे ।
सीता जी को चिंता केवल इस बात की थी जब इतने बड़े-बलवान राजा धनुष को
हिला भी नहीं पा रहे हैं तो रामजी तो बड़े सुकुमार हैं धनुष को कैसे तोड़ेंगे ?
पुष्पवाटिका में फूल तोड़ते समय और फूल का दोना उठाने में राम जी को पसीना जो आ रहा
था ।
इधर जनकजी भी बड़े अधीर हो गए कि अब क्या होगा ? यह धनुष तो किसी से हिला भी नहीं ।
सीताजी गौरी, गणेश, और शंकरजी आदि देवी देवताओं से प्रथना भी करने लगीं कि आपलोग सहायता कीजिए ।
रामजी अब भी नहीं उठे । सीताजी को लग रहा
था कि शायद अब कुछ करें । सीताजी के लिए एक पल युग के समान बीत रहा था ।
इतने में गुरूजी ने आज्ञा दी कि हे रामजी अब आप
उठिए और शिव धनुष को तोड़कर जनक जी के परिताप का समन कर दीजिए ।
सीताजी देख रही थीं कि अब भी
रामजी को कोई जल्दीबाजी नहीं है । सीताजी को लग रहा था कि कितना धीरे उठ
रहे हैं । चले रहे हैं ।
रामजी उठे भी तो पहले गुरूजी
को प्रणाम किया । फिर अन्य ऋषियों-मुनियों को प्रणाम किया । और इधर सीताजी की
अधीरता बढ़ती जा रही थी ।
रामजी उठ रहें हैं तो अपने
सहज स्वाभाविक ढ़ंग से- ‘ठवनि युवा मृगराज लजाए’ । और चले भी तो अपनी सहज स्वाभाविक
चाल से धीरे-धीरे राम जी शिव धनुष की ओर बढ़ने लगे-‘सहजहिं चले सकल जग स्वामी ।
मत्त मंजु वर कुंजरगामी’ ।।
और जब धनुष के पास पहुँच गए तो पहुँचते ही तोड़ देना चाहिए था । लेकिन
तोड़ा नहीं । रामजी ने धनुष को प्रणाम किया । गुरू वशिष्ठ जी को प्रणाम किया । इसके
बाद क्या हुआ किसी को कुछ न दिखा और न पता चला- ‘लेत चढ़ावत खैचत गाढ़ें । काहुँ
न लखा देख सब ठाढ़ें ।।
केवल सबको धनुष टूटने की ध्वनि सुनाई पड़ी और बाद में सबने राम जी को धनुष के दोनों खंडों को पृथ्वी पर रखते हुए देखा । और कुछ न किसी ने देखा और न ही किसी को कुछ पता ही चला ।
शायद सीताजी को पुष्पवाटिका में पुष्प तोड़ते समय रामजी को पसीने आने
की बात याद आ गई अथवा लगा कि कहीं और देर न हो बस सीताजी ने धनुष को तोड़कर राम जी
के हाथ में दे दिया ।
श्रीअध्यात्म रामायण में सीताजी ने हनुमानजी से
कहा है कि शिव धनुष को मैंने ही तोड़ा था । इस प्रकार जब धनुष टूट गया तो सीता
स्वयंवर सम्पन्न हो गया ।
हम सीता माताजी के युगल चरण
कमलों में प्रणाम और प्रार्थना करते हैं-
जनकसुता जगजननि जानकी । अतिसय प्रिय करुणानिधान की ।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपा निर्मल मति पावउँ ।।
।। जनकसुता जगजननि जानकी की जय ।।
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