ग्रंथों में काम, क्रोध और लोभ को बहुत ही प्रबल और जीवन के उत्थान में बाधक बताया गया है । और यह बात पूरी तरह से सत्य भी है । इसमें कोई दो राय नहीं है ।
कथा-प्रवचन, सत्संग में भी इस बात पर जोर दिया जाता है कि काम, क्रोध और लोभ को छोड़े बिना कल्याण नहीं है । ऐसे में क्या किया जाय ?
काम, क्रोध और लोभ ऐसे विकार हैं कि इनसे एकाएक मुक्ति नहीं मिल सकती
। इन विकारों से एक दिन, दो दिन या दस दिन में भी मुक्ति नहीं मिल सकती । इनसे पूरी
तरह मुक्ति एक दो वर्ष अथवा दस बर्ष में भी नहीं मिलती ।
ऐसे में यह कहना आसान होता है कि काम, क्रोध, लोभ को छोड़ दो । लेकिन ये आसानी से छूटते नहीं हैं । फिर भी जितना संभव हो इनसे बचने का प्रयास तो करना ही चाहिए ।
ऐसे में क्या किया जाय ? ऐसे में भजन-साधना में जहाँ तक हो सके लगे
रहना चाहिए । कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि इनसे मुक्ति मिलेगी तब भजन –साधन बनेगा ।
हाँ यह हो सकता है कि भजन करते-करते एक दिन इन विकारों से भी मुक्ति मिल जाये ।
इतना ही नहीं जो पूर्णतया इन तीन विकारों से यानी काम, क्रोध और लोभ
से मुक्त हो जाता है वह व्यक्ति राम जी के समान हो जाता है-
नारि नयन सर जाहिं न लागा ।
घोर क्रोध तम निसि जो जागा ।।
लोभ फांस जेहि गर न बधाया ।
सो नर तुम समान रघुराया ।।
ऐसा कोई साधन नहीं है जो
जीव को राम जी के समान बना दे । यह केवल एक ही स्थिति में संभव है-
यह गुन साधन ते नहि होई ।
तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई ।।
बड़े-बड़े साधु, संत और मुनि भी इन विकारों से पूर्णतया मुक्त नहीं होते हैं । श्रीरामचरितमानस जी में इन विकारों को भी मानस रोग के अंतर्गत माना गया है और कहा गया है कि 'एहि बिधि सकल जीव जग रोगी' और 'हहिं सबके लखि बिरलेन्ह पाए' अर्थात संसार का प्रत्येक जीव मानस रोगी है क्योंकि मानस रोग जीव मात्र के अंदर होते हैं । लेकिन हर कोई जान अथवा मान नहीं पाता । किसी के कम तो किसी के ज्यादा और किसी के भीतर बहुत क्षीण अवस्था में ये रोग रहते हैं ।
'बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे । ‘मुनिहु ह्रदय का नर बापुरे’ ।। अर्थात इनका बीज कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में मुनियों के हृदय में भी रहता है तो साधरण मनुष्यों की क्या बात की जाए ? बिषय रुपी कुपथ्य को पाकर यह बीज मुनियों के ह्रदय में भी अंकुरित हो जाता है । इसलिए ही साधु, संत और मुनियों को भी सदा बड़ी सावधानी की जरूरत होती है ।
इसलिए जैसे-तैसे भी बने भजन-राम
नाम जप में और राम जी के गुण गनों को गाने में लगे रहना चाहिए –
संतोष समुझि गुन गन अरु
करनी विरद ते आस लगाऊँ ।।
।। दीनबंधु रघुनाथ की जय ।।
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