आत्म प्रवंचना अर्थात अपने आप को छलने से या अपने आप को धोखा देने से भगवान नहीं मिलते हैं । जो स्वयं को छलेगा वह दूसरों को भी ठगेगा ही इसमें कोई दो राय नहीं है । और दूसरों को छलने से भी भगवान नहीं मिलते ।
श्रीमद्भागवत पुराण
में कथा आती है कि कुछ गोपियां एक सरोवर में स्नान कर रही थीं । सरोवर के पास से
श्रीसुखदेव (शुकदेव) जी महाराज जा रहे थे । वे चले गए और गोपियाँ स्नान करती रहीं ।
उनके पीछे सुखदेव जी के पिताजी- वेद व्यास जी आ रहे थे । व्यासजी जब सरोवर के पास से गुजरने लगे तो
गोपियों ने अपने-अपने वस्त्र पहन लिए ।
बाद में गोपियों ने
इसका कारण बताया कि शुकदेवजी के लिए स्त्री-पुरुष का भेद समाप्त हो चुका है ।
इसलिए शुकदेव जी के लिए पर्दा करना जरूरी नहीं था । लेकिन व्यासजी के लिए
स्त्री-पुरुष का भेद समाप्त नहीं हुआ है । इसलिए इनके लिए पर्दा करना जरूरी था ।
यहाँ यह बहुत ध्यान
देने वाली बात है कि व्यास जी कोई साधारण संत नहीं हैं । इन्होंने ही सभी पुराणों
को लिखा है । वेदों का विभाग इन्होंने ही किया है । उपनिषदों, महाभारत,
श्रीमद्भगवद्गीता, अध्यात्म रामायण आदि को भी इन्होंने ही लिखा है । इतना ही नहीं
ये भगवान के चौबीस अवतारों में से एक हैं । अर्थात इन्हें ही भगवान वेद व्यास कहा
जाता है । इतना सब होने के बावजूद इनके भीतर स्त्री-पुरुष का भेद था । इसका मतलब
है कि स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर उठना कोई साधारण बात नहीं है । खेल नहीं है ।
मजाक नहीं है । सबके बस की बात नहीं है ।
एक दृष्टांत है । एक नए संत अर्थात जल्दी में ही संत बने एक लोग आते थे । कुछ लोगों ने प्रचारित करना आरंभ कर दिया कि ये बहुत पहुँचे हुए संत हैं । इनको भगवद प्राप्ति हो चुकी है । इनको भगवान के दर्शन हो चुके हैं । इनको अब कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है । अब ये केवल लोगों का कल्याण करने के लिए उपदेश दे रहे हैं । कथा कह रहे हैं । खुद तर चुके हैं और अब लोगों को तारने आए हैं । और तार रहे हैं ।
एक महिला सत्संग और
सेवा के लिए संत जी जहाँ रहते थे वहीं रहने लगी थी । कुछ लोगों ने संत जी से कहा
कि इस महिला को दूर कर देना चाहिए क्योंकि यह अच्छा नहीं लगता है ।
तब संत जी ने कहा कि
आप लोग समझ नहीं रहे हो । ये कोई साधारण स्त्री नहीं हैं । ये व्रह्म में स्थित
रहती हैं । साधकों को यह समझना, मानना और जानना बहुत जरूरी है कि ब्रह्म में स्थित
होना खेल नहीं है । कुछ जप कर लेने से, कुछ कथाएँ सुन लेने से ब्रह्म में स्थित
नहीं बन् जाती है । जो संत गीता, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवतपुराण आदि ग्रंथों
पर प्रवचन करता हो, उपदेश देता हो और जिसे कुछ प्राप्त करना शेष न रह गया हो उसे
ब्रह्म में स्थित होने का मतलब न पता हो तो इससे बड़ी बिडम्बना और क्या होगी ? यह आत्म
प्रवंचना नहीं तो और क्या है ?
फिर लोगों ने तर्क दिया कि जब कोई आप से मिलने आता है और स्त्री के कपड़े सूखते हुए देखता है तो यह भी उचित नहीं लगता है । तब भगवद प्राप्त संत ने कहा कि आप लोग कुछ भी समझ नहीं रहे हो । ये स्त्री और पुरुष के भेद से ऊपर उठ चुकी हैं । यह सुनकर एक दूसरी स्त्री बोली कि जब मैं महाराज जी के पास आती हूँ तो मैं भी स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर उठ जाती हूँ । यहाँ यह समझना बहुत जरूरी है कि भगवान वेद व्यास स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर नहीं उठे थे । लेकिन संत जी ने एक स्त्री को जिसने कुछ कथाएँ सुनी थी और कुछ जप किया था उसके लिए कह रहे थे कि यह साधारण स्त्री नहीं हैं ये स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर उठ चुकी हैं । यह आत्म प्रवंचना नहीं तो और क्या है ? स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर उठना भी आज के समय में खेल बन गया है ? इसी तरह भगवद प्राप्ति, भगवद दर्शन और लीला में प्रवेश आदि सब खेल बन गया है ।
स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर उठना, भगवद प्रप्ति, भगवद दर्शन और लीला में प्रवेश आदि खेल नहीं है । इन सबको खेल समझने वाले और समझाने वालों दोनों से दूर रहना चाहिए । अपने ईष्ट में श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए । जहाँ तक हो सके अपनी साधना अर्थात नाम जप आदि करना चाहिए और शेष रामजी के ऊपर छोड़ देना चाहिए । और समझना चाहिए कि आत्म प्रवंचना से भगवान नहीं मिलते हैं-
रामदास कलिकाल में, खेल खेल में खेल ।
दर्शन प्राप्ती खेल भै, खेल भै लीला मेल ।।
।। जय श्रीराम ।।
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