दूसरों को
उपदेश देना सरल होता है । चाहे ज्ञान,
वैराग्य की बातें हों चाहे भक्ति की दूसरों को बताना आसान होता है । आजकल
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी पावर पॉइंट प्रेजेन्टेशन के माध्यम से भी
लेक्चर लिए जाते हैं । प्रेजेन्टेशन देने वाला पढ़कर बोलता जाता है और स्लाइड बढ़ाता
जाता है । उसका काम हो जाता है वो भी आसानी से । भले ही प्रेजेंटेशन देने वाला
स्वयं कन्टेंट को न समझ रहा हो लेकिन वह बोलकर और एक के बाद दूसरी स्लाइड दिखाकर
अपना काम बना लेता है ।
आजकल कई लोग बताते
हैं कि ऐसा करोगे तो लीला में प्रवेश हो जाएगा । ऐसा करोगे तो भगवद प्राप्ति हो
जायेगी । ऐसा करोगे तो भगवान का दर्शन हो जाएगा । आदि ।
लेकिन यह नहीं बताते
कि ऐसा करके हमने देख लिया है । मैंने लीला में प्रवेश कर लिया है । हमें भगवद
प्राप्ति हो चुकी है । हमें भगवान के दर्शन हो चुके हैं । कोई पूछे कि क्या आपको
भगवान के दर्शन हो चुके हैं तो कई लोग गोल-मटोल जबाब देते हैं । कई लोग प्रश्न
सुनकर मौन भी हो सकते हैं । जिससे लोग समझें कि इनको हो तो चुका है लेकिन ये बताना
नहीं चाहते हैं । कई लोग स्पष्ट बोल, कह और लिख भी देते हैं कि हमें दर्शन हो चुका
है ।
कई लोग ऐसा भी बोल देते हैं कि मुझे तो नहीं हुआ लेकिन इसलिए
बताते हैं कि हो सकता है सामने वाले को हो जाए ।
कई लोग ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, साधन और साधना की बड़ी-बड़ी बातें
करते हैं लेकिन उस स्तर का ज्ञान-वैराग्य-भक्ति और साधना आदि उसके भीतर होती नहीं
है । सुनी-सुनाई बातें, पढ़ी हुई बातें बोलते जाते हैं लेकिन उन बातों को स्वयं के
भीतर नहीं उतारते और ‘आपुन मंद कथा शुभ पवन’ को चरितार्थ करते रहते हैं । लेकिन
सही लाभ ठीक-ठीक लाभ तो तभी मिलता है जब ये बातें अपने भीतर भी उतरने लगें और उतर
जाएँ । गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि उपदेश देने वाले तो बहुत से कुशल लोग हैं । लेकिन जिनके आचरण
में भी उपदेश घटित होता हो ऐसे लोग बहुत कम हैं –
पर उपदेश कुशल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।।
।। जय श्रीराम ।।
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