साधारण जन मानस से लेकर सभी के मन में साधु-संतों के प्रति बहुत आदर और सम्मान होता है और होना भी चाहिए । लेकिन इस कराल कलिकाल में कुछ लोग जो साधु-संत के वेश में रहकर लोगों को गुमराह करते हैं उनसे बचना बहुत जरूरी है । इसलिए ग्रंथों के आधार पर यहाँ चार तरह के संत बताए गए हैं ।
कलियुग में मुख्यतः चार तरह के संत होते हैं । पहले तरह के वे संत
होते हैं जिनके लिए ‘हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं’ चरितार्थ होता है ।
अर्थात ये दिन रात भगवान के ही चिंतन में लगे रहते हैं । और किसी बात से इन्हें
कोई लेना देना नहीं होता है ।
दूसरे कोटि के वे संत होते हैं जो आश्रम आदि बनवाने में और सजाने सवाँरने में व्यस्त नहीं रहते अर्थात इनके लिए ‘बहु दाम सवाँरहिं धाम यती’ लागू नहीं होता है। लेकिन इनके मित्र बहुत हो जाते हैं । जान-पहिचान अधिक हो जाने से भजन-साधन में और मुख्यतः बिरति में बाधा होती है । यह संकेत पुराणों में मिलता है । पद्म पुराण और स्कंद पुराण देखा जा सकता है ।
तीसरे तरह के वे संत होते हैं जिनके लिए ‘बहु दाम सवाँरहिं धाम यती । विषया हरि लीन्ह गई विरती’ चरितार्थ होता है । यह वर्णन श्रीरामचरितमानस जी के उत्तरकाण्ड में मिलता है । इस कोटि के साधक आश्रम बनवाने में, घर-कमरे बनवाने और सजाने सवाँरने में व्यस्त रहते हैं । भगवान की माया की गति बड़ी सूक्ष्म है वह कब किसे अपने लपेटे में ले ले कुछ कहा नहीं जा सकता है । और पता भी नहीं चलता कि माया ने अपने लपेटे में ले लिया है और अब ‘आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ चरितार्थ हो रहा है ।
चौथे कोटि में वे लोग आते हैं जो साधु-संत वेश धारी होते हैं और जो भगवान को छोड़कर बाकी सब चीजों से प्रयोजन रखने वाले होते हैं । इन्हें भगवान नहीं संसार ही चाहिए होता है । ये ऐसे लोग होते हैं जिन्हें दो विकल्प मिल जाए कि एक ओर रामजी हैं और दूसरी ओर दाम तो ये दाम की ओर ही जाएँगे । ऐसे लोग उल्टी पल्टी पढ़ाकर लोगों को गुमराह करते हैं । और भगवान से न जोड़कर अपने से तथा किसी और से ही लोगों को जोड़े रहते हैं । ऐसे लोगों से बचने की बड़ी जरूरत होती है-
रामदास छल कपट बहु, करत दिवस अरु रात ।
देखि देखि माया घनी, जग मूरख बनि जात ।।
जप तप करते नाम को, छाया मुदित खिचाय ।
रामदास नहि राम को, दुनिया रहे रिझाय ।।
जग रीझा तो क्या हुआ, रीझे नहि जो राम ।
रामदास चुनने लगे, राम दाम बिच दाम ।।
नहिं मतलब कछु राम से, चहैं धरा धन धाम ।
रामदास इनसे बचैं, जिन्हें बचावैं राम ।।
।। जय श्रीराम ।।
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