पहले के युगों में भगवान दुष्टों को भी मिल जाते थे । जैसे सतयुग में हिरण्यकश्यपु को भी भगवान मिल गए थे । त्रेता में रावण, कुम्भकर्ण आदि को भी भगवान मिल गए थे । और द्वापर में कंस आदि को भी भगवान मिल गए थे । लेकिन आज के समय में भगवान केवल संतो से मिलते हैं ।
संत का मतलब यह नहीं है कि कोई विशेष वेश धारण करना पड़ेगा । और घर
छोड़कर जाना पड़ेगा । संत का मतलब संतत्व धारण करने से है । जिसके अंदर संतत्व है वह
संत है चाहे उसका वेश कुछ भी हो और चाहे वह घर में रहे अथवा बाहर ।
जो दूसरों के दुख में दुखी नहीं होते और दूसरों के सुख में सुखी नहीं
होते हैं । दूसरे के धन को विष से भी बड़ा विष नहीं मानते हैं । पर नारी को माता
नहीं मानते हैं । दूसरे की सम्पति देखकर हर्षित नहीं होते हैं । काम, क्रोध, लोभ
और मोह में रत होते हैं । जिन्हें अपनी प्रशंसा अच्छी लगती है और दूसरे की प्रशंसा
से दुख होता है । जिन्हें प्रशंसा और गाली एक समान नहीं लगती है । जिन्हें भगवान
के भक्त अच्छे नहीं लगते । जो स्वयं मानप्रद होते हैं और दूसरों को मान नहीं देते ।
जो सुख और दुख में एक समान नहीं रहते । जिन्हें भगवान की कथा, रूप, लीला, नाम और
गुण में अनुराग नहीं होता है । आदि । ऐसे लोगों के अंदर संतत्व नहीं होता ।
जिनका आचरण उपरोक्त के विपरीति होता है उसके अंदर संतत्व होता है और
इसलिए ऐसे लोग संत होते हैं और भगवान इन्हें मिल जाते हैं ।
कलियुग में भगवान केवल संतों
को ही मिलते हैं । कम से कम कलियुग के तीसरे चरण तक ऐसा ही रहने वाला है ।
इसलिए कलियुग में दुष्टों के लिए मुख्य रूप से दो ही रास्ते हैं ।
पहला कि वे संत हो जाएँ और दूसरा कि वे शरणागत हो जाएँ ।
पहला रास्ता कठिन है क्योंकि
इसमें स्वयं संत होना पड़ेगा । दूसरे रास्ते में स्वयं संत नहीं होना पड़ेगा । इसलिए
यह रास्ता पहले रास्ते की अपेक्षा आसान है ।
दूसरे रास्ते में भगवान स्वयं संत बनाकर मिलेंगे-‘करउँ सद्य तेहिं
साधु समाना’ । लेकिन मिलेंगे संत से ही ।
।। जय श्रीराम ।।
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