संतों और ग्रंथों द्वारा सकामता की अपेक्षा निष्कामता को श्रेष्ठ
बताया गया है । लेकिन निष्कामता आने में समय लगता है । जैसे कोई गृहस्थ
भक्त है तो वह निष्कामता को शीघ्र प्राप्त हो जाए ऐसा कोई जरूरी नहीं है ।
कोई निष्काम भक्त है तो बड़ी अच्छी बात है । और कोई सकाम भक्त है तो
भी अच्छी बात है । क्योंकि भक्त होना ही अच्छा होता है । तथा सकाम भक्त भी कभी न
कभी निष्काम बन ही जाता है ।
संत-ग्रंथ बताते हैं कि निष्काम भक्त भगवान को बहुत प्रिय होते हैं ।
लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि सकाम भक्त भगवान को प्रिय नहीं होते हैं ।
भगवान किसी से भी घृणा नहीं करते तो भक्त से क्यों करेंगे चाहे वह सकाम ही क्यों न
हो ।
विभीषण जी भगवान के भक्त थे ।
उनके मन में कामना आई कि रामजी के शरण में जाऊँगा तो रावण वध के पश्चात लंका का
राज्य मुझे मिल जाएगा । जब विभीषण जी रामजी से मिले तो बोले कि पहले तो मन में कुछ
वासना थी लेकिन वह अब आपके चरणों के प्रीति रुपी नदी में बह गई है । अर्थात अब
आपके चरणों को छोड़कर मुझे कोई और इच्छा नहीं है ।
रामजी बोले कि आपकी कोई इच्छा नहीं है लेकिन मेरी इच्छा है कि मैं
तुम्हें लंकेश बना दूँ । क्योंकि मेरे दर्शन का फल अमोघ है और उसके फलस्वरूप मैं
तुम्हें लंका का राज्य प्रदान करता हूँ । और रामजी ने विभीषण जी का राजतिलक कर
दिया ।
विभीषण जी के मन में थोड़े
से समय के लिए लंका का राज्य मिलने का विचार आया था और रामजी ने उन्हें बहुत लम्बे
समय-पूरे एक कल्प के लिए लंका का राजा बना दिया । चाहे थे थोड़ा और पा गए बहुत ।
रामजी ऐसे दाता है । जो थोड़ा चाहने वाले को भी बहुत कुछ दे देते हैं ।
विभीषण जी से रामजी कम प्रेम न करते थे और न करते हैं । इसलिए निष्कामता है तो बड़ी अच्छी बात है और सकामता है तो भी अच्छी बात है । बस रामजी से जुड़ाव जरूरी है । निकटता जरूरी है । प्रेम जरूरी है । यह भाव जरूरी है कि रामजी मेरे स्वामी हैं और मैं रामजी का सेवक हूँ । फिर सकामता कभी न कभी निष्कामता में बदल जायेगी ।
हर समय में भगवान के हर तरह के भक्त होते हैं । इसमें से एक तरह के भक्त सकाम
भक्त भी होते हैं जो भगवान से अभी और कुछ-सुख, संपत्ति पाने की इच्छा रखते हैं और
निष्काम भक्त या तो भगवान से कुछ नहीं चाहते या फिर भगवान से भगवान को ही चाहते
हैं । जो सकाम भक्त होते हैं भगवान पहले उनकी इच्छा पूरी करते हैं और बाद में वे
भी निष्काम बन जाते हैं-
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं । सुख संपति नाना बिधि पावहिं ।।
कुल मिलाकर जैसे भी बने राम जी से जुड़े रहना है । रामजी को
अपना मानना है और गुनगुनाते रहना है-
‘हे नाथ मेरे, रघुनाथ मेरे तुमको कभी राम मैं न भुलाऊँ’ ।
।। जय श्रीराम ।।
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