जिसको थोड़ा भी सनातन धर्म का ज्ञान होगा उसे पता होगा कि गुरू-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की सनातन परंपरा है । वैदिक परंपरा है । वेद अनुमोदित परंपरा है । और वेद सनातन धर्म में सर्वोपरि हैं ।
अभी हाल में कुछ महीने पहले ही एक लोग कथा कहते हुए कह रहे थे कि
भगवान और जीव के बीच में किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं है । संसार में पहले से ही कई
बंधन हैं । फिर एक बंधन और क्यों बनाना है ? गुरु की कोई जरूरत नहीं है ।
कुछ भी हो गुरू को बिचौलिया कहना अथवा मानना उचित नहीं है । ऐसा
बोलना गुरू तत्व का अपमान है । और गुरु तत्व का अपमान भगवान का ही अपमान है । ऐसा
समझना चाहिए ।
सही-योग्य व्यक्ति को गुरू बनाना चाहिए । यह सब कहना समझाना उचित है लेकिन वेद विरुद्ध कोई बात कहना उचित नहीं है । योग्य गुरू न मिलें तो भगवान को ही गुरू बनाया जा सकता है । लेकिन गुरू तत्व को ही नकार देना उचित नहीं है क्योंकि यह वेद अनुमोदित तथ्य है ।
गुरु बनकर भगवान को छोड़कर अपने को ही पुजवाना आदि गलत है । यह सब कहना, समझाना सही है । लेकिन गुरू तत्व की निंदा गलत है ।
कोई व्यक्ति गुरू बनकर सही शिक्षा नहीं देता, गलत आचरण रखता है, संसार से अथवा अपने से ही जोड़े रखता है और भगवान से नहीं जोड़ता है तो ऐसे व्यक्ति के बारे में कोई बोलना चाहे तो बोले । ऐसे किसी व्यक्ति के बारे में बोलना अथवा कुछ कहना एक व्यक्ति विशेष की बात होती है ।
लेकिन गुरू को ही बिचौलिया करार देना सनातन-वैदिक परंपरा की निंदा है । वेद की निंदा है । गुरू-शिष्य का सम्बंध बंधन नहीं होता है । बंधन छुड़ाने के लिए होता है । लेकिन कराल कलिकाल है यदि सही गुरू नहीं है अथवा सही शिष्य नहीं है तो बंधन कैसे छूटेगा ? यह बात तो है । लेकिन यह सब व्यक्ति से व्यक्ति के लिए है । समाज में बुराई आ गई है इसलिए वेद के सिद्धांतों की तो निंदा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि वेद की निंदा नर्क में ले जाती है ।
वेद के सिद्धांतों की निंदा करना, उन्हें गलत बताना अथवा उन पर
दोषारोपण करना सनातन धर्म में पाप है और नर्क में ले जाने वाला है । एक कल्प में
एक हजार बार सतयुग, एक हजार बार त्रेता, एक हजार बार द्वापर और एक हजार बार कलियुग
आते हैं । अर्थात एक कल्प का समय बहुत बड़ा होता है ।
और जो लोग वेद के सिद्धांतों को तर्क करके गलत बताते हैं उन्हें
एक-एक नर्क में एक-एक कल्प रहना पड़ता है । ऐसा संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी
महाराज कहते हैं-
कल्प कल्प भरि एक एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ।।
।। जय श्रीराम ।।
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