कलियुग में वेद मार्ग को त्यागकर लोग अपने मनोकूल मार्ग बना लेते हैं
। कलियुग में सबसे अच्छा मार्ग कौन सा होता है-‘मनोकूल मार्ग’ । गोस्वामीजी
महाराज कहते हैं कि कलियुग में लोग-‘मारग सोइ जाको जो भावा’ के अनुसार मार्ग
चुन लेते हैं और उसी पर चलने लगते हैं । उसी का प्रचार-प्रसार करने लगते हैं ।
पिछले पोस्ट में बताया गया
है कि गुरू-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की सनातन परंपरा है । वैदिक परंपरा है । वेद
अनुमोदित परंपरा है और सनातन धर्म में वेद सर्वोपरि हैं । और वेद अनुमोदित तथ्य को
दूषित करना, उसकी निंदा करना पाप है जो नरकों में ले जाता है-
कल्प कल्प भरि एक एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ।।
श्रीरामचरितमानस जी पर वेद,
शास्त्र, प्राचीन संत, देवता, भगवान आदि सबकी सम्मति है- ‘वेद शास्त्र सम्मति
सबही की’ । इतना ही नहीं श्रीरामचरितमानसजी भगवान शंकर जी का हस्ताक्षरित
ग्रंथ है । अर्थात शंकरजी ने इस ग्रंथ पर अपना हस्ताक्षर किया है ।
भगवान शंकर जी से बड़ा कोई संत, भक्त, ज्ञानी, वैरागी है क्या ? और भगवान
शंकर जी की श्रीरामचरितमानस जी पर सम्मति है । और श्रीरामचरितमानस जी में लिखा है
कि-
गुर बिनु भवनिधि तरय न कोई । जो विरंचि शंकर सम होई ।।
इसके बाद भी यह कहना कि भगवान और जीव के बीच किसी बिचौलिए की जरूरत
नहीं है । गुरू को बिचौलिया कहा जाना क्या उचित है ?
मनोकूल मार्ग जो कलियुग का मार्ग है इसमें पिक एंड चूज भी बहुत चलता
है । जो मनोकूल हो उसे ले लो और जो मनोकूल न हो उसे छोड़ दो । रामचरितमानस जी बहुत
पठनीय, बहुत श्रवणीय है । इसलिए कई लोग श्रीरामचरितमानस जी के कुछ दोहे और
चौपाइयों को तो बोलेंगे । गायेंगे । सुनायेंगे । अथवा अपनी कही हुई बात को मजबूती
प्रदान करने के लिए भी प्रयोग करेंगे । लेकिन वही दूसरी ओर गुरू को बिचौलिया भी
बोल देंगे । गुरू और शिष्य के सम्बंध को बंधन बता देंगे । यह तो पिक एंड चूज हुआ ।
जैसे कोई किसी व्यक्ति से कहे कि हम आपको बहुत मानते हैं, पसंद करते
हैं लेकिन आपका हाथ हमको बिल्कुल पसंद
नहीं है । इसे मैं नहीं रहने दूँगा क्योंकि यह हमें पसंद नहीं है । यह कैसा मानना
हुआ ? मानों तो पूरा मानों या तो न मानो । और जो तथ्य वेद अनुमोदित है उससे इतना
परहेज क्यों ? भगवान भी आते हैं तो वेद धर्म की रक्षा करने के लिए आते हैं- ‘वेद
धर्म रक्षक जन त्राता’ । फिर गुरू बिचौलिया कैसे हो गया ?
यह बात सही है कि समाज में
बुराई आ गई है । योग्य गुरू और योग्य शिष्य दोनों का मिलना मुश्किल है । फिर भी
गुरू बिचौलिया नहीं है । ऐसा कहना गुरू तत्व की निंदा करना है ।
कोई गुरू बना लेगा तो वह भव बंधन से छूट ही जाएगा ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो गुरू और शिष्य दोनों की योग्यता पर निर्भर करेगा । उनकी लगन पर निर्भर करेगा ।
बिना गुरू के भवनिधि क्या
है ? इससे तरना है इसका विवेक भी नहीं आएगा । भगवान से जुड़ना है । ‘राम-राम’ जपना
है । इसका विवेक ही नहीं आएगा ? जहाँ से यह ज्ञान मिलता है । यह विवेक आता है वही
गुरू है ।
‘गुरू बिनु भवनिधि तरय न
कोई’ यह परम सत्य है । सनातन-शाश्वत सत्य है । वेद अनुमोदित सत्य है । इसलिए
बिना गुरू के कोई संसार सागर से पार नहीं होता है ।
जहाँ पर गुरू और संत की महिमा बताई गाई है वहीं गुरू और संत के लक्षण
भी बताए गए हैं । लक्षण घटें तो गुरू बना लेने में कोई बुराई नहीं है । और न घटे
तो भगवान को ही गुरू बना लेना चाहिए । क्योंकि रामजी तो जगत गुरू हैं - ‘जगतगुरुं
च शाश्वतं तुरीयमेव केवलं । श्रीसनत्कुमारसंहिता में भी कहा गया है-
नारायणं जगन्नाथमभिरामं जगत्पतिम् ।
कविं पुराणं
वागीशं रामं दशरथात्मजम् ।।
राजराजं रघुवरं
कौसल्यानन्दवर्धनम् ।
भर्गं वरेण्यं
विश्वेशं रघुनाथं जगद्गुरूम् ।।
रामं रघुवरं वीरं धनुर्वेदविशारदम् ।
मंगलायतनं देवं रामं राजीवलोचनम् ।।
।। जय श्रीराम ।।
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