न संसार अपना है न ही शरीर अपना है । इस संसार रुपी सागर से तरना है अर्थात हम रामजी के हैं और हमें रामजी से ही मिलना है । यह विवेक ही भव विवेक है । यह जानना, बोलना, बताना दूसरी बात है लेकिन अंदर से इसे मानना और समझना तथा इसके अनुरूप व्यवहार करना दूसरी बात है । और यह शंकर जी की कृपा से होता है ।
जैसे कोई किसी शहर में जाए और वहाँ एक कमरा लेकर रहने लगे तो वह उसमें रहता भले ही है लेकिन वह कमरा उसका नहीं रहता है । बस थोड़े दिन ठहरने के लिए उसे वह कमरा मिला है । इसी तरह हर जीव अपने शरीर रुपी कमरे में कुछ दिन के लिए रहता है । जैसे कमरा कुछ दिन रहने के लिए तो है लेकिन उसका नहीं है । ठीक ऐसे ही यह शरीर कुछ दिन रहने के लिए ही मिला है । कोई कहता है कि अमुक व्यक्ति की आयु तीस वर्ष है तो इसका मतलब होता है कि अमुक जीव को उस शरीर में रहते हुए तीस वर्ष हो गया । तीस वर्ष की अवस्था उस शरीर की है । जीव की कोई अवस्था निर्धारित ही नहीं की जा सकती क्योंकि वह अनादि है ।
संसार की वास्तविकता
क्या है ? संसार का असली स्वरूप क्या है ? जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है ?
माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री, पुत्र-पुत्री, पति आदि सम्बंधी इनसे सम्बंध किसी
प्रारब्ध के कारण ही है । फिर भी शरीर
अपना है, घर-मकान अपना है, सभी सम्बंधी अपने हैं यह मानकर जीव भुलावे में रहता है ।
सबको पकड़कर रखना चाहता है । लेकिन कुछ पकड़ में आता नहीं है । एक-एक करके सब कुछ
छूटता जाता है । एक दिन घर-मकान आदि और शरीर भी छूट जाता है । लेकिन आसक्ति छूटती
नहीं है ।
एक दो युग नहीं अनेकों कल्पों तक अनेक उपाय क्यों न किए जाएँ
लेकिन संसार के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता । संसार के वास्तविक स्वरूप
का ज्ञान भगवान शंकर की कृपा से ही होता है । जब तक जीव पर भगवान शंकर की कृपा
नहीं होती तब तक वह संसार में ही उलझा रहता है । उसकी गति, उसकी मति रामजी की ओर
हो ही नहीं पाती । गोस्वामी तुलसीदासजी जी कहते हैं कि विज्ञान के धाम पार्वती-रमण
शंकर जी मेरे भय को दूर करने वाले हैं । क्योंकि शंकर जी संसार जनित समस्त भयों-भव
भय को दूर करने वाले हैं -
बहु कल्प उपायन करि अनेक । बिनु
शंभु-कृपा नहिं भव विवेक ।।
विग्यान-भवन गिरिसुता-रमन । कह तुलसिदास मम त्रास समन ।।
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जा पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव
मुनि भगति हमारी ।।
।। विज्ञान भवन पार्वती रमण शंकरजी की
जय ।।
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