भोले-भाले लोग समझते हैं कि किसी संत की सेवा करने लग जायेंगे,
उनका संग करने लग जायेंगे तो अपना बेड़ा पार हो जाएगा । अर्थात वे संसार सागर से पार
हो जाएँगे । कई लोग तो यहाँ तक समझने लगते हैं कि उनको भगवद प्राप्ति हो जायेगी ।
भगवान के दर्शन हो जाएँगे ।
एक बात और है
भोले-भाले लोग कथा वाचक और संत में अंतर भी नहीं समझते । जो कथा कह रहा हो,
संस्कृत के दो-चार श्लोक बोल रहा हो उसी को संत मान लेते हैं । कथा वाचक और संत
में क्या अंतर है ? संत कथा वाचक हो सकता है लेकिन कथा वाचक का संत होना जरूरी
नहीं है । यह समझना आवश्यक है ।
सुंदरकाण्ड में चौपाई
आती है ‘अब मोहिं भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।। कई
कथा वाचक और संत इस चौपाई पर बहुत जोर देते हैं और जोर देकर समझाते भी हैं जिससे
सुनने वालों को समझ में आ जाए कि उन पर भगवान की कृपा हुई है-हो चुकी है तभी ये हम
लोगों को मिले हैं और कथा सुना रहे हैं ।
इसी तरह अरण्यकाण्ड में चौपाई आती है जिसमें कहा गया है- ‘प्रथम
भगति संतन कर संगा’ । इस पंक्ति पर भी कथा-वाचक और संत बहुत जोर देते हैं और
जोर देकर समझाते भी हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि कई भोले-भाले लोग कथा वाचक का
संग करने लगते हैं अर्थात उनके साथ लग जाते है । अथवा साथ के लिए लालायित रहते हैं
या रहने लगते हैं ।
इसी तरह विनय पत्रिका जी में एक पद आता है कि ‘जब द्रवहिं
दीनदयाल राघव साधु संगति पाइए’ । इस पद पर भी कई कथा वाचक और संत बहुत जोर
देते हैं और जोर देकर समझाते भी हैं । जिससे लोग समझ जाएँ कि रामजी द्रवित हुए हैं
तभी हम लोगों को इनकी संगति मिली है ।
लेकिन सच बात तो यह
है कि ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता’, ‘प्रथम भगति संतन कर संगा’, और ‘साधु
संगति पाइए’ में संत और साधु का अर्थ यह नहीं है कि कोई भी जो साधु अथवा संत
के वेश में हो अथवा जो कथा कह लेता हो । यहाँ
पर साधु और संत का मतलब शुद्ध साधु और शुद्ध संत से है । और इसलिए विनय पत्रिका जी
में ही गोस्वामी जी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि- ‘भव सरिता को नाव शुद्ध संतन
को चरण’ । लेकिन यह पद कथा-वाचकों और संतों द्वारा थोड़ा उपेक्षित है । जिसपर
ज्यादा जोर नहीं दिया जाता । इसको लोग कथा-प्रवचन में प्रायः गाते नहीं हैं ।
चूँकि कराल कलिकाल का
समय है । इसलिए ऐसे लेख की आवश्यकता है । इसी को ध्यान में रखकर इस लेख को लिखा गया
है । यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि शुद्ध संतन के चरण ही भव सागर से पार लगा
सकते हैं ।
।। जय श्रीसीताराम ।।
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