भगवान राम का स्वभाव इतना सरल है कि जो उनका दास बनना चाहता है उसे वे अपना मित्र बना लेते हैं और मित्रता का निर्वाह भी करते हैं ।
कई लोग कहते हैं कि मित्रता बराबर वालों से करनी
चाहिए । लेकिन राम जी के बराबर का तो कोई
तीनों कालों, तीनों लोकों और चौदहों भुवनों में भी नहीं है । और रामजी ने दीन
हीनों को अपना मित्र बनाया है । जो उनके दासों के दास भी नहीं बन सकते थे उन्हें
भी मित्र बना लिया । धन्य हैं रामजी । धन्य है उनका स्वभाव ।
कहाँ निषाद
और कहाँ राम जी ? लेकिन रामजी ने उन्हें भी अपना मित्र बना लिया- ‘तुम मम सखा
भरत सम भ्राता । सदा रहेहु पुर आवत जाता’ ।। रामजी ने निषाद जी से कहा कि आप
मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो । आप कभी संकोच मत करना । राजधानी अयोध्या
में आते-जाते रहना ।
वह केवट जिसने रामजी को गंगा से पार कराया था । उसे रामजी ने सुर दुर्लभ भक्ति का वरदान दिया । और वनवास समाप्त करके अयोध्या जाते समय मिलने पर रामजी केवट से मित्रवत मिले । अपनी छाती से लगाया और कुशल छेम पूछा ।
वन में जितने भी कोल, किरात, भील आदि मिले रामजी ने सबका सम्मान किया । और सबसे
मित्रवत व्यवहार किया । ये लोग जब अयोध्यावासियों से मिले तो सबने कहा भी कि रामजी
से मिलकर हम लोगों की दिशा और दशा दोनों बदल गई है ।
वानरों-भालुओं को भी राम जी ने अपना सखा बनाया । जब कोई कहता है कि वानर और भालू रामजी के भाई बंधु हैं तो रामजी इसमें अपनी बड़ाई मानते हैं । जब ऐसा कहा जाता है कि निषाद, केवट, कोल, किरात और भील रामजी के सखा हैं- तो राम जी को प्रसन्नता होती है- केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ।
विभीषण जी, जो रावण के भाई थे, राक्षस थे । शरण में आने पर रामजी ने उनको भी अपना सखा बना लिया ।
इस प्रकार जो चाहता है कि रामजी मुझे
अपने शरण में ले लें, अपना दास बना लें रामजी सामान्यतया उसे अपना सखा बना लेते
हैं ।
।। केवट मीत और बानर बंधु रघुनाथ जी
की जय ।।
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