भगवान श्रीराम की सेना के बानरों और भालूओं को सुपर्णनखा की नाक और कान काटे जाने की घटना शायद बहुत रास आई । इसलिए ही बानर और भालू अक्सर राक्षसों के नाक और कान भी काट लेते थे । कुम्भकर्ण जैसा पराक्रमी राक्षस भी अपनी नाक और कान नहीं बचा पाया था ।
जब विभीषण जी भगवान श्रीराम की शरण में आए तो उसी समय रावण ने अपने दो गुप्तचरों को भगवान श्रीराम की सेना और भगवान श्रीराम
का भेद जानने आए । जिनका भेद शेष, महेश, गणेश, शुक, सनकादिक, नारद, शारद इत्यादि
बड़े-बड़े विशारद नहीं जानते, नहीं जान पाते और वेद नेति-नेति कहकर मौन हो जाते हैं
उनका भेद भला कौन जान सकता है ? लेकिन राक्षस तो राक्षस ही ठहरे । इन्हें क्या पता
था कि भेद मिले या न मिले ऊपर से नाक और कान भी जा सकते हैं ।
भगवान श्रीराम जी का स्वभाव,
रामजी की भक्तवत्सलता, सरलता, शरणागत वत्सलता, दयालुता और परम उदारता आदि गुणों को
देखकर ये भूल गए कि हम रावण के गुप्तचर हैं । भूलते ही इनका छद्म बानर भेष दूर हो
गया और ये अपने वास्तविक राक्षस रूप में आ गए । और राक्षस रूप में भी भगवान
श्रीराम के गुणों की चर्चा करते रहे ।
बानरों ने पहचान लिया और बाँध लिया । पिटाई भी किया । और सेना के
चारों ओर चक्कर भी लगवाए । फिर नाक और कान की बारी आई । रावण के पास नाक-कान
कटवाकर कैसे जाते ? इधर बानर-भालू कहाँ छोड़ने वाले थे । तब नाक और कान बचते हुए न
देखकर इन राक्षसों ने कहा कि जो हम दोनों की नाक और कान काटे उसे कोशलाधीस भगवान
श्रीराम की शपथ है-‘जो हमार हर नासा काना । तेहिं कोसलाधीस कै आना ।। और
दीनता पूर्वक छोड़ने के लिए पुकार कर ही रहे थे । लक्ष्मणजी को दया आई और लक्ष्मणजी
ने इनको छुड़ा दिया ।
इस प्रकार रावण के गुप्तचरों की
नाक और कान कटते-कटते बचे और गुप्तचर रावण से जाकर बोले-
रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ।।
श्रवन नासिका काटन लागे । राम शपथ दीन्हे हम त्यागे ।।
।। कोशलाधीश श्रीरामचंद्र भगवान की जय ।।
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