संसार का सब कुछ अर्थात सारा संसार एक दिन बिछुड़ जाता है, नहीं बिछुड़ते हैं तो एक मात्र रामजी । राम जी जन्म से लेकर मरण तक और उसके बाद भी साथ निभाते हैं । इस प्रकार संसार तो बिछुड़ जाता है लेकिन मेरे रामजी कभी नहीं बिछुड़ते हैं ।
इतना ही नहीं कोई पहले तो कोई बीच में साथ छोड़ जाता है । और अंत में तो कोई साथ में नहीं ठहरता है और न ही कोई ठहरता है अर्थात सबको संसार छोड़कर जाना पड़ता है ।
रामजी सभी के आदि, मध्य और
अंत के साथी हैं लेकिन मन राम जी के चरण को न पकड़कर संसार को ही पकड़ता है । संसार
को जबरन पकड़ता है और लोभ, मोह की रस्सियों में जकड़ लिया जाता है । संसार में जिसे
पकड़ो वह वैसे ही छूट जाता है, निकल जाता है जैसे मुट्ठी में पकड़ा हुआ जल ।
संसार रूपी चक्की के दो पाटे
हैं एक का नाम सुख और दूसरे का नाम दुख है । इंही दो पाटों के बीच में पिस-पिस कर
जीव चौरासी का चक्कर लगाता रहता है ।
ऐसी स्थिति में कोई बिना कृपासिंधु भगवान रघुनाथ जी की कृपा के और किस बिधि से निकल सकता है ? अतः हे मेरे मन अब तो तूँ सीताराम जी के सुखदायक
चरणों को मत भुला ।
ऐसा कौन है जो रामजी के गुणों और उनकी करनी को याद कर-करके भवसागर से पार न हो जाए अर्थात कोई भी ऐसा नहीं है जो रामजी के गुणों और उनके चरित्र का चिंतन करके भव सागर से पार न उतर जाए । दीन जनों की बिगड़ी तो रामजी की कृपा से ही सुधरती आई है और सुधरती है । ऐसे में मुझ दीन की भी बिगड़ी रामजी की कृपा से बन जायेगी-
जग बिछुरै एक राम न बिछुरैं ।
आदि मध्य अरु अंत के साथी राम चरन नहिं पकरै ।।१।।
कोउ पहले कोउ बीच में छोड़ै अंत संग नहिं ठहरै ।
जग में जाइ जगत हठि पकरै लोभ मोह रजु जकरै ।।२।।
जो पकरै सो हाथ से जाए मूठी जल जिमि निसरै ।
भवचक्की सुख दुख दो पाटे पिस-पिस चौरासी टहरै ।
कृपासिंधु रघुनाथ कृपा बिनु केहि बिधि कोउ पुनि निकरै ।
सीताराम चरन सुखदायक अब जनि रे मन बिसरै ।
सुमिर-सुमिर रघुपति गुन करनी कोउ नहिं भवनिधि उतरै ।
दीन संतोष राम कृपा ते दीन जनन की सुधरै ।।५।।
।। जय श्रीसीताराम ।।
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