गोस्वामी जी महाराज श्रीरामचरितमानस जी में कहते हैं कि-
जनम जनम मुनि जतन कराहीं । अंत राम कहि आवत नाहीं ।।
यहाँ जतन का मतलब साधन है । और कहि का मतलब मुँह से राम नाम निकलना
है । यहाँ ‘अंत राम सुनि आवत नाहीं’ नहीं
लिखा गया है । अर्थात मुँह से यदि अंत समय में राम नाम निकल गया तो मुक्ति मिल
जाती है ।
इसी तरह गोस्वामीजी कहते हैं कि
जाकर नाम मरत मुख आवा । अधमहु मुकुत होत श्रुति गावा ।।
यहाँ मुख आवा का मतलब उच्चारण करने से है, बोलने से है । अर्थात यदि व्यक्ति अंत समय में स्वयं राम नाम का उच्चारण करता है तो उसकी मुक्ति हो जाती है । यहाँ भी राम नाम कर्ण आवा नहीं कहा गया है ।
ग्रंथों में केवल शंकर जी द्वारा राम मंत्र सुनाने से काशी क्षेत्र
में मुक्ति की बात लिखी है । ऐसा वरदान स्वयं भगवान श्रीराम ने शंकर जी को दिया है
।
कोई मर रहा हो और कोई उसे
राम नाम सुना रहा हो तो उस व्यक्ति की मुक्ति हो जायेगी इसमें संदेह है । क्योंकि
यदि राम नाम सुनाने से व्यक्ति के भीतर भगवान का चिंतन होने लग जाए अथवा उसके मुख
से राम नाम निकल जाए तो उसकी मुक्ति हो जायेगी । चिंतन उस व्यक्ति के मन में होना चाहिए जो मरने वाला है । इसी तरह
राम नाम उस व्यक्ति के मुख में आना चाहिए जो मरने वाला है ।
जीवन भर माया-मोह,झूठ, छल, कपट, प्रपंच और संसार में अनुरक्त रहें और अंत समय में भगवान का स्मरण हो जाय अथवा भगवन्नाम का उच्चारण हो जाए यह सब इतना सरल नहीं है । हमारे यहाँ अवधी में एक कहावत कही जाती है कि ‘सहजै गुड़ पाकै, तौ के न गपाकै’ । इतना सरल होता तो त्यागी, वैरागी बनने और तरह-तरह के साधन और साधना की जरूरत ही नहीं रह जाती ।
नाम और रूप में भेद नहीं है । नाम स्मरण और भगवत स्मरण एक ही है । ग्रंथों में अंत समय में भगवान का स्मरण होने से अथवा भगवन्नाम का उच्चारण होने से मुक्ति की बात कही गई है । भगवान गीताजी में कहते हैं कि-
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ।।
इस श्लोक में भी भगवान ने अंतकाल में भगवान का स्मरण करते हुए देह
त्याग करने पर भगवत स्वरूप हो जाने की बात कही है । इस प्रकार चाहे कोई भगवान का
चिंतन करते हुए देह का त्याग करे और चाहे भगवन्नाम का उच्चारण करते हुए देंह
का त्याग करे तो मुक्ति मिल जाती है ।
।। जय श्रीराम ।।
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