कथा कहना और उपदेश देना बहुत जिम्मेदारी का कार्य होता है । इसलिए कथा और उपदेश में केवल प्रमाणिक बातों को ही बोलना चाहिए । प्रमाणिक बातों का मतलब जो प्रमाणिक ग्रंथों में वर्णित तथ्य हों उन्हें ही बोलना चाहिए । वाल्मीकि जी, व्यासजी, और तुलसीदास जी आदि के ग्रंथों से लिए गए तथ्य होना चाहिए ।
एक संत जी कथा कहने आए थे उनसे कोई किसी बड़े संत की बात करे तो वे
कहते कि हाँ वे- वे फँसे हैं उनको फिर जन्म लेकर आना पड़ेगा । ऐसे ही
कहते कि वो- वो भी फँसे हैं उनको भी संसार में आना पड़ेगा । और उनकी तो
गप्प मारने की आदत है । और उनके साथ जो संत रहते हैं वे माल-पूड़ी काटने और मोटी
दक्षिणा के लिए आते हैं ।
भगवान की माया बड़ी दुस्तर
है । कौन फँसा है और कौन मुक्त यह कहना मुश्किल है । जो फँसे होते हैं उनको भी पता
नहीं चलता कि वे फँसे हैं और वे दूसरों को कहते रहते हैं कि वे तो फँसे हैं ।
कुछ लोग प्रत्यक्ष कुछ नहीं लेते तो उनको लगता है कि वे मुक्त हैं बाकी लोग फँसे हैं । लेकिन इनके सम्बंध से लोग देते रहते हैं । उदाहरण के लिए इनके साथ रहने वाले को जो दिया जाता है वह इनके सम्बंध से ही दिया जाता है । जैसे समाज में कई लोग हैं जिनके पास कई चीजों का अभाव होता है । लेकिन उनको तो कोई कुछ नहीं दिला देता । इनके साथ वाले को लोग क्यों दिलाते हैं ? क्यों देते रहते हैं ? इनके सम्बंध से ही देते हैं न । वो इनके पास से हट जायें, इनसे बिगाड़ कर ले तो लोग उनसे बात तक नहीं पूंछेंगे ।
कोई नहीं-नहीं करके लेता है । और कोई बिना नहीं-नहीं किए लेता है । कोई कम लेता है और कोई ज्यादा लेता है । अंतर यही है । और दूसरों को कहते हैं कि वे सब फँसे हैं । ऐसा सुनकर व देखकर भावुक भक्त सोचते हैं और मान लेते हैं कि बहुत पहुँचे हुए गुरू जी मिले हैं ।
इनको कौन बताए कि भगवान के
यहाँ सत्संग नहीं होता है । वहाँ कथाएं नहीं होती हैं । एक बार मैंने इनसे कहा कि भगवान के
यहाँ तो कथा नहीं होती है तो आप वहाँ कैसे कथा सुनायेंगे । ये बोले होती क्यों
नहीं है । होती है । हम लोग वहाँ भी सत्संग करेंगे । मैंने समझाया कि हनुमानजी
महाराज कथा सुनने के लिए तो यहाँ रुके हैं । भगवान के धाम में इसलिए ही नहीं गए
क्योंकि वहाँ कथा नहीं होती है । तब ये बोले अच्छा ऐसी बात है ।
कुल मिलकर अपनी लाइन बड़ी करने के लिए किसी दूसरे की लाइन छोटी करने
का प्रयास नहीं करना चाहिए । और जो शास्त्र सम्मत हो वही बोलना चाहिए । ऐसा नहीं
होना चाहिए कि सामने वाला नहीं जानता हो तो जो मन में आए वही बोलते जाइए । बोल दो
कि आप लोग भी मीराबाई बन सकती हो । और कोई अपने घर आकर कहने लगे कि मैं सारे
रिश्ते नाते तज दूँगी । अब मुझे लोक लाज की परवाह नहीं है । जैसा कि पहले भाग में
बताया गया है । मीराबाई किसी के बनाने से मीराबाई नहीं बनीं थीं । वे भगवान के समय
की गोपी थीं और उनके साथ उनके भक्ति का प्रारब्ध भी आया था । इसलिए वे महान भक्ता
थीं । अधिक जानकारी के लिए पहला भाग देख सकते हैं ।
।। जय श्रीराम ।।
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