एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से कहा कि भगवन ! लोक बड़ा है या वेद-‘लोक की वेद बड़ेरो’ । अर्थात आप तो वेद रक्षक हैं । वेद प्रतिपादित धर्म का पालन करने वाले हैं । फिर भी आपने लोक के कहने से ही सीताजी को दूसरा वनवास दे दिया । अर्थात आपने केवल वेदों को महत्व नहीं दिया है बल्कि लोक को भी महत्व दिया है । इसका मतलब वेद और लोक दोनों महत्वपूर्ण हैं ।
कहने का मतलब है कि परलोक बनाने के चक्कर में लोक बिगाड़ नहीं लेना
चाहिए । लोक बिगड़ गया तो परलोक बन
जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है ।
आज कल कई लोग अपने सिद्धांत बना लेते हैं । और ग्रंथों के बातों को या तो नहीं मानते या मनमाने तरीके से पेश करते हैं । गोस्वामी जी ने कहा है कि भक्ति में मूर्खता के लिए कोई स्थान नहीं है- ‘भगति पक्ष हठि नहिं शठताई’ । भक्ती में कुतर्क तो नहीं करना चाहिए लेकिन भक्ती में तर्क के लिए स्थान होता है । ऐसा गोस्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस जी में कहा है । इसलिए भक्ती तो करना चाहिए लेकिन मूर्खता नहीं करनी चाहिए । मूर्खता का एक उदाहरण दे रहे हैं ।
एक लोग हैं । इनकी पत्नी को गुरू जी की चिंता सताती रहती है । कई लोगों का नम्बर ले लिया है जिसमें से कुछ महाराज जी से जुड़े हुए लोग हैं और दो-तीन महाराज जी के आस-पास अथवा उनके साथ ही रहते हैं । कभी किसी से पूछती है कि और महाराज कैसे हैं । ठीक तो हैं । महाराज जी का कोई समाचार मिला क्या । मैं चाहती हूँ गुरूजी ठीक रहें । उनको कोई समस्या न हो । आदि । कई बार तो ग्यारह बजे रात को जब बच्चे और पति सो रहे होते हैं तब भी किसी से बात होने लगती है । गुरू जी का समाचार मिलता रहे इसलिए लोगों को मोबाईल भी दिला देती है । स्वयं क्या दे दे और दूसरों से क्या-क्या दिला दे इसी में परेशान रहती है । यह मूर्खता भी है और आसक्ति की चरम सीमा है । जिसको इतनी आसक्ति होगी उसका क्या कल्याण होगा ?
एक दिन इन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि गुरू तो हर कोई बनाता है लेकिन तुम्हारे जैसे कोई गुरू के पीछे पागल नहीं होता है । समझाने के लिए भी कोई बात होती है तो वह इतनी हर्ट हो जाती है कि कभी वेहोश हो जाती है । तो कभी उसका सिर जोरो के साथ दर्द करने लगता है । इससे घर का पूरा माहौल खराब हो जाता है । आए दिन झगड़ा हो ही जाता है ।
कभी वह कहती है कि मैंने वैसे
ही लोगों से फोन पर बात करना कम कर दिया है । नहीं चाहिए फोन मुझे । मुझे माया-मोह
में नहीं पड़ना है । निकाल लो सिम । जिनके पास फोन नहीं रहता उनका काम नहीं चलता
क्या ? इन्होंने कहा कि तुम्हारे गुरूजी फोन नहीं रखते हैं इसलिए तुम भी फोन नहीं
रखना चाहती हो क्या ? इतने पर ही भड़क गई और बोली कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई
हमारे गुरूजी की ओर आँख उठाने की । मैं सारे रिश्ते नाते समाप्त कर दूँगी ।
इन्होंने कहा कि फोन रखना
तो जरूरी है । तुम्हारे गुरूजी के पास कोई न कोई फोन रखने वाला हमेशा रहता है ।
उनका मैसेज हर जगह पहुँचता रहता है । फिर फोन की उन्हें जरूरत क्या है ?
किसी का भी अंधे होकर
अनुसरण नहीं करना चाहिए । तुम गृहस्थ धर्म में हो- बेटी है, बेटा है । दोनों स्कूल
जाते हैं और बहुत सारी जरूरते रहती हैं । तुम कहीं जाओगी तो तुम्हारे साथ हमेशा
फोन लेकर कौन रहेगा ? वह बोली मुझे कहीं नहीं जाना है । मैं सब कुछ छोड़ रही हूँ । मैं
भोजन-पानी भी छोड़ दूँगी ।
ये बता रहे थे कि एकात बार जब इनकी पत्नी ने नाराज होकर कहा कि आज से
मैं कथा में भी नहीं जाऊँगी । मैं दवा भी नहीं खाऊँगी । मैं यह नहीं करूँगी । मैं
वह नहीं करूँगी तो ये खुद मनाकर गुमराह करने वाली कथा में ले गए । जिससे घर का माहौल नार्मल हो जाए ।
उसके बाद वो कहती है कि मैं तो छोड़ रही थी तुम्ही तो लेकर गए ।
एक व्यापारी जो उसके गुरू का ही फालोवर है, रात में ग्यारह बजे भी इनके पास फोन कर देता है । कुछ गुरूजी की बात कर देता है । तो वह खुश हो जाती हैं । और ये बताते हैं कि कहेगा कि माताजी सब मोह माया है-‘राणा जी संभारो घर-बार मैं तो चली वृंदावन’ । कहता है मुझे ज्यादा मोह माया में नहीं पड़ना है । मैं तो कुछ दिनों में सब छोड़-छाड़कर जा रहा हूँ । फिर अपने सामान की भी बात करेगा कि यह भिजवा दूँ, वह भिजवा दूँ । तो ये स्वयं तो खरीदती हैं अगल-बगल वाले को भी ग्राहक बना देती हैं । अब माया-मोह कहाँ गया ? इस तरह के लोग भी दूसरों को गुमराह करते हैं ।
मैंने भी समझाने का प्रयास किया । श्रीरामचरितमानसजी से चौपाई बताई-‘सास
ससुर गुर सजन सहाई । सुत सुंदर सुसील सुखदाई’ । आदि । कहा कि पति के साथ के
लिए तो सास, ससुर, गुरू, माता-पिता, भाई आदि सभी रिश्ते को भी छोड़ देने की बात आई
है मानस जी में । राम-राम जपो घर में, कहीं आने-जाने की क्या जरूरत है । तब वह बोली कि अपना उपदेश अपने पास रखो ।
लेकिन जब मंथरा ने कैकेयी जी को समझा दिया तो फिर उन्होंने न तो किसी की सुनी, न सोचा न समझा । राम जी का वनवास हो गया, और दशरथ जी का मरण भी हो गया । इनकी समस्या है कि कब तक सुन और सह पाएंगे कि मैं सारे रिश्ते नाते समाप्त कर दूँगी ।
जो भोले भाले लोग हैं । भावुक प्रकृत के हैं । जिनको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है । धर्म-अध्यात्म की अच्छी समझ नहीं है वे किसी के बातों में आ जाते हैं । वे ये नहीं समझते कि भगवान कोई वस्तु नहीं हैं कि कोई अपने जेब से निकाल कर दे देगा कि लो यह भगवान हैं । अथवा ऐसे किसी के पीछे पड़ जाने से भगवान मिल जाएँगे ।
लेकिन जब सामने वाला बोलता है कि जब तक भगवान का अनुभव-दर्शन न हो
जाय तब तक किसी को कथा नहीं कहनी चाहिए । यह सुनकर भावुक भक्त यही सोचता है कि ये ऐसा बोल रहे हैं इसका मतलब
इनको जरूर भगवत प्राप्ति-दर्शन आदि हो
चुका है । क्योंकि उसके पास इतनी समझ नहीं
होती है कि भगवान के दर्शन के बाद जीव की स्थिति बदल जाती है-‘मम दर्शन फल परम
अनूपा । जीव पाव निज सहज स्वरूपा’ ।
जब कोई जिसमें लोगों की
श्रद्धा है बोलेगा कि आज से पिछले बीस-पच्चीस वर्ष में कोई अच्छा संत-भक्त नहीं
हुआ है । अब एक दो वर्षों में कोई बड़ा चमत्कार होने वाला है । लेकिन आप लोग इसे
मेरा अभिमान नहीं समझना । तब भावुक भक्त यही सोचता है और सोचता क्या है मान लेता
है कि इनके जैसा कोई नहीं । ये ही हैं ।
लेकिन यह कितनी गुमराह करने वाली बात है । और संतों-भक्तों का घोर
अपमान है कि आज से पिछले बीस-पच्चीस वर्ष में कोई अच्छा संत-भक्त नहीं हुआ है ।
अरे भाई रामजी के लिए कहा गया है कि-‘घट घट वासी’ । तुमको कैसे पता है कि
कोई अच्छा-संत-भक्त पिछले बीस-पच्चीस वर्ष में नहीं हुआ है । आपने तो सबको फेल कर
दिया ।
इतने तीर्थ स्थान हैं, गिरि, खोह, पर्वत हैं कहाँ कौन महापुरुष विराजमान थे और कहाँ विराजमान हैं क्या पता ? कोई नहीं हुआ है पिछले बीस पच्चीस वर्षों में । आप तो सबको नकार रहे हैं । सबका अपमान कर रहे हैं । ऐसे सत्संग से क्या होगा ?
इसी तरह कुछ लोग स्त्रियों को पति की आज्ञा और इच्छा के विपरीति कल्याण के नाम पर अकेले आने-जाने के लिए प्रेरित करते हैं । और तीर्थ आदि में पति के स्पष्ट मना कर देने के बावजूद स्त्रियों को बार तीर्थ आदि में जाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं । इसीलिए वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित मनमानी करने वाले गुरू की आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिए । इसी तरह से यमल तंत्र में दोष युक्त गुरू का त्याग करके दूसरा गुरू बनाने की अनुमति दी गई है तथा ग्रंथों में गुरू बनाने से पहले उसके गुण-दोषों पर भली भांति बिचार करके निर्णय करने को कहा गया है ।
कुल मिलाकर मूर्खता, आसक्ति और चरम आसक्ति छोड़कर भक्ती में आगे बढ़ना चाहिए । न गुमराह होना चाहिए न किसी को गुमराह करना चाहिए । आजकल कई लोग कल्याण, भक्ती, भगवत प्राप्ति, दर्शन और लीला में प्रवेश के नाम पर मनमाना उपदेश दे रहे हैं । जब कल्याण राम-राम रटने से हो सकता है तो फिर भटकने की क्या जरूरत है ?
।। जय श्रीराम ।।
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